Sunday, July 5, 2015

भारशिव शासक और उनका शासन काल



भारशिव शासक और उनका शासन काल
नवनाग-
डाँक्टर  काशीप्रसाद जायसवाल को कौशांबी (इलाहाबाद) से एक मुद्रा मिली जिसे डाँक्टर स्मिथ ने “कौटालाग आफ इंडियन म्यूजियम”पृष्ट 206 फ्लेट XXIII, 15 और 16 पर प्रदर्शित किया है। यह मुद्रा साधारणतया संयुक्त प्रांत आगरा व अवध मे मिल जाती है। इस मुद्रा पर अंकित लिपि का प्रथम अभी तक कोई विश्वास पूर्वक नही पढ़ पाया है। डाँक्टर जायसवाल इसके प्रथम अक्षर की तुलना शतब्दी से लेकर तीसरी शताब्दी तक की प्रओप्त लिपियो के आधार पर की है इसके प्रथम अक्षर को “ना” की तरह पढ़ा है। इसका “न” कुषाणों  की लिपि के समानहाइ। यह सिक्का “नावसा”(Navasa) है और इस शब्द “नावसा” के ऊपर एक नाग का उठा हुआ फन बना है। यह आकार नागों की वंशीय मुद्राओ के समान है डाँक्टर जायसवाल इस “नावसा” को “नव ना” पढ़ा है। भरशिव नागों की मुद्राओ पर जिस तरह ताड़ या खजूर का चिन्ह अंकित रहता है उसी तरह इस मुद्रा पर चिन्ह अंकित है।
यह मुद्रा मुद्राशास्त्रीयों  के लिए उलझन भरी है। कैटालाग आफ इंडियन म्यूजियम के पृष्ट 133 पर वी स्मिथ ने “नावसा” को “देवसा” Devasa पढ़ा है स्मिथ के शब्दो मे-
The “Devasa” Class (Separately Numbered) Is Puzzling The Coins Are Common In The United Provinces Of Agra And Oudh And A Good Specimen Which I Formerly Possessed Came From Kosum In The Allahabad District. The Upper Charectes Look Like Numerals In The Old Notation. The Reading Devasa Is Due To Prof. Repson The First Character Being Picullier In Form, Has Been Read Generally As ‘NE’ But De Appear To Be The Correct Reading. There Is Nothing To Indicate Who Deva Was.”
इस प्रकार स्मिथ प्रथम अक्षर को NE तक तो कह दिया था पर बाद मे de को ही मान्यता देकर devasa पढ़ा.
डाँक्टर जायसवाल कहते है की इस शब्द का नुकीला छोर इतिहास मे मतत्वपूर्ण अध्याय जोड़ सकता है लेकिन इसका व्यक्तित्व खोजा नहीं जा सका। ऊक नाम और वंश झूठला  दिया गया। यह वस्तु स्वयम मे समाहित है-
1.       यह ऐसा राजा था जो संयुक्त प्रांत पर शासन किया थे।
2.       उसकी मुद्रा कौशांबी से जारी हुई है जहा वे अभी भी पाई जाती है और कौशांबी की हिन्दू मुद्रा की तरफ संकेत और धागे का एक छोर देती है।
3.       उसके मुद्राओ का क्रम वैसा ही है जैसा की डाक्टर स्मिथ ने “कैटलाग आफ इंडियन म्यूजियम” के प्लेट XXIII पर दिया है और उसे अहस्ताक्षरित कहा है।
4.       उसकी मुद्राओ का संबंध विदिशा-मथुरा की नाग मुद्राओ से है।
5.       वह कम से कम 27 वर्षो तक राज कर चुका है जैसा की उसकी मुद्राओ पर तिथि का वर्ष 7,20 और 27 अंकित है (डाक्टर स्मिथ ने “कैटलाग आफ इंडियन म्यूजियम” P -200)
6.       उसकी मुद्राओ के अनुसार वह एक तरफ तो पदमवाती  और विदिशा से जुड़ा हुआ है तो दूसरी तरफ कौशांबी के शासकों की मुद्राओ से।
जैसा की आगे हम देख सकेंगे की कौशांबी की मुद्राए वास्तव मे भरशिव मुद्राए है। बहुत सी मुद्राओ पर अंकित अंतिम नाम “नाग” है डाक्टर काशी प्रसाद जायसवाल कहते है की मुझे मेरी इस “नव नाग” की मुद्राओ मे ऐसा दिखाई पड़ता है की ये मुद्राएँ पुराणों मे वर्णित “नव नाग” या “नव नाक वंश” से भिन्न नही है। वह “नवनाग” वंश का संस्थापक था जिसका कामकाजी उपनाम भारशिव था। उसके सिक्को के अक्षरो की पहचान हविष्क-वसुदेव के रेकार्ड जैसा ही है। वह वसुदेव के समकालीन था और उसका समयकाल 140-170 ईस्वी था।


विरसेन के  सानिध्य  मे मथुरा मे भारशिव शक्ति की स्थापना 175-180 ईस्वी पश्चात हुई-
175 या 180 ईस्वी सन मे एक ऐसे शासक का मथुरा मे प्रादुर्भाव हुआ ज्सिने वहा  हिन्दू संस्कृति-सभ्यता की पुनर्स्थापना किया। वह नाग वंश का शासक था। और सूका नाम विरसेन था। विरसेन का उदभव  केवल नाग इतिहास के परिवर्तन का अंक(turning point) नहीं था. बल्कि आर्यावर्त के भी बदलाव का काल था। उसक मुद्राएँ अधिक संख्या मे उत्तरी भारत, सयुंक्त प्रांत के सभी सभी स्थानो पर और यहा तक की पंजाब तक पायी जा चुकी है। जर्नल आफ रायल एसियाटिक सोसाइटी (J.R.A.S.)1897, पृष्ट 879 पर स्मिथ के शब्दो मे “ ये मुद्राए साधारणतया उत्तर-पश्चिम के प्रांतो मे और पंजाब मे पायी गयी है”।  ये मुद्राए साधारण तौर पर कनिघम को मथुरा से प्राप्त हुई थी जिनकी संख्या लगभग  एक सौ थी। कार्लेई ने तेरह सिक्के इंदौर खेरा, बुलंदशहर जिसले से प्राप्त किया। उसने ईटावा, कन्नोज़ तथा फरुखाबाद जिलो के बहुत से स्थानो से सिक्के इसी तरह के प्राप्त किए। इससे यह प्रमाणित होता है की उसका साम्राज्य मथुरा और सम्पूर्ण आर्यावर्त दोआब तक फैला हुआ था। साधारण स्टार की उसकी मुद्राए छोटी, उसमे ताड़ का वृक्ष बना हुआ और ताज से सुसज्जित की गयी हैं (V. smith, “कैटलाग आफ इंडियन म्यूजियम” page -191)
मुद्रा आयताकार है ताड़ के वृक्ष के ऊपर नाग का संकेत या चिन्ह बनाया गया है। यह नागो की एक और मुद्रा का उल्लेख कनिंघम ने अपनी पुस्तक “क्वायन्स आफ इन्सियंट इंडिया” प्लेट VII, चित्र 18 मे किया गया है। जो मनुष्य के रूप मे खड़ा नाग को पकड़े हुये है। इस मानवकृत का चित्र अलग से कनिंघम ने हाथ से बनाकर प्रदर्शित किया है। तीसरे तरह की मुद्रा को प्रोफेसर रैपसन ने “जर्नल आफ रायल एसियाटिक सोसाइटी,1990 चित्र 15 की प्लेट आकृति को पृष्ट 97 पर दर्शाया है जिसमे एक स्त्री छत्रक सिंहासन पर आसीन है। एक नाग इस सिंहासन के निचले सिरे से ऊपर ताज तक ऐसा दिखाया गया की वह नाग ताज को सिर से गिरने से बचा ले। अपने दाहिने हाथ मे कलश लिए यह गंगा का चित्रा है। (कैटलाग आफ इंडियन म्यूजियम” plate XXII चित्र 1) सिक्के के दूसरे पहलू पर ताड़ वृक्ष बना हुआ है जो छोटे-छोटे वृक्ष समूहो से घिरा है। सिक्का कलात्मक रूप से उस नाग से संबन्धित है जिसका उपनाम चित्रो द्वारा प्रदर्शित किया गया है। नाग उसके वंश को प्रदर्शित करता है और ताड़ वृक्ष उसके आदर्श के चिन्ह को, यह प्रदर्शन जहा की नाग सिंहासन  से छत्र  तक उठता हुआ दिखाया गया है। शायद कलात्मक रूप से उभय संकेत “अहिछत्र” की ओर इंगित करता है। अथार्थ यह अहि छत्र  का मुद्रा प्रदर्शन  है। यह शासक के पदमावती – मुद्रा का प्रदर्शन भी है। (coins of mediaval india, plate- II figs 13&14, by कनिंघम)। जिसमे महाराजा के पौराणिक(legend) परिपेश को उकेरा गया है। ये पदमावती के नाग राजाओ की प्रारम्भिक सीढ़ी या पंक्ति के सभी सिक्के है। ये सभी सिक्के हिन्दू परिपाटी लौटते हुये ढाले  या पाँच किए गए है। जिनके वजन, आकार और सांकेतिक लिपि उसी परंपरा मे है। दूसरे शब्दो मे विरसेन ने कुषाणो की मुद्राओ के विपरीत मुद्राओ को रूप दिया है।



विरसेन के लेख
1897 ईस्वी मे रिचर्ड बर्न ने फरुखाबाद जिले की तहसील तिर्वा (TIRWA) केई गाँव जंकट या ज्ंखट  से एक शिलालेख पाया। डाक्टर जायसवाल ने इसका अध्यन किया। इस शिलालेख को बर्न ने “इपोग्रेफिया इण्डिका” vol  XI P-85 मे प्रकाशित करवाया, ज्सिके प्रकाशक पर्गिटर थे । वाहा जनसंख्या मे वक्राकार टूटी हुई कलकृतिया और उनपर खुदा हुआ लेख तथा जानवर के मुख तथा सिर पर बनी आकृतियां कलात्मक ढंग से उकेरी गयी। ये टुकड़े वास्तव मे भारशिव  कला के सुंदर नमूने है। सौभाग्य से डाक्टर जयसवाल को इसका चित्र प्राप्त हुआ। 1909 मे इसे आर्कियोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया ने प्राप्त किया। इस चित्र के लिए आर्कियोलोजि के डाइरेक्टर जनरल राय बहादुर दायराम साहनी को धन्यवाद देते है डाक्टर जायसवाल स्तम्भ “मकर-तराना” है और स्त्री का चित्र पवित्र गंगा है। यह चित्र प्रोफेसर रैपसन  द्वारा दिया गया मुद्रा चित्र उस आदर्श संकेत का प्रतीक है। यहाँ एक वृक्ष का खुरदुरा प्रतिनिधित्व है जो मुद्रा शास्त्र की नजर मे ताड़ यहा खजूर का वृक्ष है । किनारो की सजावट बात-चीत का वह चिन्ह है जो त्थीक वैसे ही प्रदर्शित करता है। जैसे सिक्के पर उसके संकेत को अभी तक खोजा नहीं जा सका है। इस विषय मे डाक्टर जायसवाल कहते है की यह एक शाही (royal) बुनियाद का शाही चिन्ह है। लेख पर खुदी तारीख तेरहवे वर्ष के राज की है और उस पर “स्वामी विरसेन” (स्वामी विरसेन संवतसरे10,3) अंकित है उसका दूसरा टुकड़ा उसके उद्देश्य की एक अच्छी धरोहर है इस पर तारीख ग्रीष्म काल के चतुर्थ पक्ष पर आठवे दिन की है। इस पर उकेरे अक्षर अहिछ्त्र  की मुद्राओ पर उकेरे अक्षरो के क्रम मे समान है। उसके लेखो के चरित्र मथुरा से प्राप्त हविष्क और वासुदेव के लेखो के चरित्र के समान है जिसको डाक्टर बुलर ने 

3 comments:

  1. भारत सरकार
    Government of India
    कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय
    Ministry of Personnel, Public Grievances & Pensions
    CPGRAMS
    Grievance Status for registration number : PMOPG/E/2021/0569746
    Grievance Concerns To
    Name Of Complainant
    Dr Pancham Rajbhar
    Date of Receipt
    15/11/2021
    Received By Ministry/Department
    Prime Ministers Office
    Grievance Description
    प्रतिष्ठामें,
    माननीय प्रधानमंत्री जी
    भारत सरकार
    नई दिल्ली
    सन्दर्भ -संस्कृति मंत्रालय
    विषय- भारशिव नागवंशी भर समाज कुलगौरव डलमऊ नरेश महाराजा डलदेव जी के प्राचीन राष्ट्रीय धरोहर किले,कोट,भग्नावशेष, स्मृतियां आदि के अवशेष को सरकारी संरक्षण में जीर्णोद्धार कर सुरक्षित रखे जाने के सम्बंध में -
    महोदय,
    सादर आपका ध्यान उ प्र के जनपद रायबरेली के तहसील/ब्लॉक/थाना डलमऊ में गंगा नदी के किनारे प्राचीन काल के भारशिव नागवंशी भर जाति के कुलभूषण डलमऊ नरेश महाराजा डलदेव जी के किले पुरातात्विक भग्नावशेष सहित पुरानी कलाकृतियां,सामाजिक,सांस्कृतिक राजनीतिक आदि के चिन्ह,अवशेष आज भी विद्यमान हैं परंतु सरकारी संरक्षण व देखरेख के अभाव में इसका अस्तित्व मिटता जा रहा है उक्त प्राचीन काल के किले को सरकारी गजेटियर प्राविन्सेज ऑफ अवध 1877 के वैल्युम 3 के पृष्ठ 220 व डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर रायबरेली के पृष्ठ 56,246 पर एवं अन्य साहित्यों जनश्रुतियों के प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर उक्त किले का एक महत्वपूर्ण गौरवशाली इतिहास है जिसके मूल अस्तित्व व अवशेष को संरक्षित कर भावी पीढ़ी के स्मरण हेतु संयोजित किया जाना लोकहित में नितांत आवश्यक है सूच्य है कि उक्त डलमऊ का किला के महत्व को देखते हुए देश विदेश के दार्शनिक,इतिहासकार, साहित्यकार, लेखक,शैलानी आदि प्रतिदिन आते जाते रहते हैं परंतु समुचित देखभाल व जिम्मेदारी के अभाव में जनता को काफी असुविधा का सामना करना पड़ता है जबकि ऐतिहासिक व प्राकृतिक दृष्टिकोण से उक्त मनोरम स्थल का जीर्णोद्धार कर सुंदरीकरण करते हुए भारतीय पुरातत्व/उ प्र राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा अधिग्रहित कर राजकीय संरक्षण में लेते हुए पर्यटक स्थल बनाया जाय तो निश्चित रूप से सरकार को राजस्व की प्राप्ति भी होगी और एक पुरानी राष्ट्रीय धरोहर भी संरक्षित रहेगी जो आने वाली पीढ़ी के लिए यादगार होगी ! उक्त के संबंध में मेरे द्वारा पूर्व में भी कई प्रत्यावेदन दिए गए हैं ! यथा - PMOPG/E/2020/0444604 --&-- PMOPG/E/2021/0279432 आदि ! अतएव आपसे अनुरोध है कि सदियों से पुरानी संस्कृति व सभ्यता की विचित्र रहस्यमयी स्मृति को संरक्षण के लिए किले का जीर्णोद्धार करते हुए सरकारी तौर पर अधिग्रहित किये जाने हेतु तत्संबंधित को निर्देशित करने की कृपा करें !
    आभारी रहूंगा कि वस्तुस्थिति से हमें भी अवगत कराने का कष्ट करेंगे !
    प्रतिलिपि - मा संस्कृति मंत्री जी भारत सरकार एवं उपरोक्तानुसार तत्सम्बन्धित को सादर सम्प्रेषित !
    सम्मान सहित
    भवदीय
    डॉ पंचम राजभर
    पूर्व सम्पादक -सुहेलदेव स्मृति मा प -
    Ex- राष्ट्रीय महासचिव अखिल भारतीय राजभर संगठन - आवास - कुरथुवा पो सोनहरा जिला आज़मगढ़ उ प्र 276301 मोबाइल 9889506050/9452292260
    Current Status
    Grievance Received
    Date of Action
    15/11/2021
    Officer Concerns To
    Forwarded to
    Prime Ministers Office
    Officer Name
    Shri Ambuj Sharma
    Officer Designation
    Under Secretary (Public)
    Contact Address
    Public Wing 5th Floor, Rail Bhawan New Delhi
    Email Address
    ambuj.sharma38@nic.in
    Contact Number
    011-23386447

    ReplyDelete
  2. https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2027641270730053&id=100004525982420&sfnsn=wiwspwa

    ReplyDelete
  3. सेवामें,
    जनसूचनाधिकारी
    प्रमुख सचिव
    समाज कल्याण विभाग
    उ प्र शासन ,बापू भवन
    सचिवालय लखनऊ
    विषय - जनसूचना अधिकार अधिनियम 2005 के तहत सूचना उपलब्ध कराए जाने के संबंध में -
    महोदय,
    सादर अनुरोध करना है कि उ प्र में मूलतः निवासरत भर Bhar जाति जो कि विमुक्त जाति की सूची में श्रेणीबद्ध है जिसे प्रामाणिक अभिलेखों व उ प्र अनु जाति/अनु जनजाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान व समाज कल्याण विभाग अनुभाग 3 द्वारा भी भर synonyms राजभर भी कहा/लिखा/जाना जाता है ! उक्त के संबंध में जनहित में निम्नलिखित सूचनाओं की आवश्यकता है !
    1-क्या भर Bhar जाति विमुक्त जाति (Denotified Tribes) की सूची में अंकित है ?यदि हाँ तो किस शासनादेश के तहत श्रेणीबद्ध है ? उसकी प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराएं !
    2 - क्या शासनादेश सं 308/26-3-83-(31)41/81 दिनांक 28/02/1983 के तहत भर synonyms राजभर अथवा भर/राजभर जाति को एक मानते हुए शासनादेश निर्गत हुआ है ? यदि हाँ तो उसकी प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराएं !
    3- क्या शासन के अनुसचिव के पत्र सं 43 सी एम/26-3-2000-3(12)/80 दिनांक 15 जून 2002 के प्रतिउत्तर में निदेशक अनु जाति/अनु जनजाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान उ प्र भागीदारी भवन लखनऊ द्वारा निदेशक के पत्र सं 424-425/1-21/2000-1/शो-प्र-सं/टी सी दिनांक 04/07/2002 द्वारा विमुक्त जाति में सूचीबद्ध भर सहित सर्वेक्षणोपरांत राजभर जाति को एक माना गया है ?यदि हाँ तो उसकी प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराएं !
    4- क्या शासन के पत्र सं 2865/26-3-2000-31(21)/82 दिनांक 8 अगस्त 2003 के प्रतिउत्तर में निदेशक अनु जाति/अनु जनजाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान उ प्र के पत्र सं 561/98-99/शो प्र सं लखनऊ दिनांक 12 अगस्त 2003 के प्रस्तर 1 में भर व राजभर जाति को एक ही जाति माना गया है ?यदि हाँ तो उसकी प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराएं !
    5- क्या उपरोक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए विमुक्त जाति की सूची में अंकित भर जाति जो शासनादेश सं 22 सी एम /26-3-2013 दिनांक 10 जून 2013 के प्रस्तर 2,3,4 में उल्लिखित व्यवस्था के अनुसार ओ बी सी की भी सूची में श्रेणीबद्ध है ? यदि हाँ तो क्या प्रस्तर में उल्लिखित शासनादेश दिनांक 31/08/2002 एवं शासनादेश सं 446(1)/64-1/2000 दिनांक 25 अप्रैल 2000 के अनुसार भर/राजभर दोनों एक ही है तो विमुक्त जाति में भी एक ही मानी जायेगी ,यदि नहीं तो क्यों ?
    अतः आपसे प्रबल अनुरोध है कि जनहित में उपर्युक्त सूचनाएं उपलब्ध कराने का कष्ट करें !
    नियमानुसार रुपये दस Rs 10-00 की नगद धनराशि क्रमसँ ------------ ------ संलग्न है
    सादर
    भवदीय

    डॉ पंचम राजभर
    मु व पो दुबरा बाजार
    (बरदह )
    जनपद आज़मगढ़ उ प्र
    पिन कोड 276301
    मो 9889506050/ 9452292260 -email -drprajbhar1962@gmail.com

    ReplyDelete